Wednesday, November 25, 2009

माँ का आँचल फाड़ कर ही अगर छांव मिलती हो तो भगवान मुझे हर युग हर काल में सिर्फ धुप ही धुप दें

दोस्तों ........आपके बीच एक नयी बहस के साथ अपना एक नया पोस्ट लेकर बहुत जल्दी आ रहा हूँ मै शिवानन्द द्विवेदी "सहर" ! विषय है " क्या आज भी अंग्रेजों के गुलाम नहीं हैं वो लोग जो कभी समाज के बीच सिर्फ इसलिए अंग्रेजी बोलने पर मजबूर हुए हों क्योंकि उन्हें हिंदी बोलने में शर्मिंदगी महसूस हुई हो ....? निरा बेवकूफ और गद्दार हैं वो लोग जिनके दिल में यह खौफ है कि बिना अंग्रेजी सीखे उन्हें रोटी नहीं मिल सकती , उन्हें बेहतर मुकाम नहीं मिल सकता ....! जमाने के साथ आसानी से बदल जाने वाले हैं वो लोग जिन्हें हिंदी के प्रचार एवं प्रसार से ज्यादा आसान अंग्रेजी सीख कर दो जून कि रोटी जुटाना लगता है ! इतिहास गवाह है कि समय उन्ही का रहा है जो जमाने के साथ नहीं बल्कि जमाने को बदलने में यकीं रखते थे ! मै एक ही बात कहना चाहूंगा उन गुलाम प्रवृति के मूर्खों से कि " माँ का आँचल फाड़ कर ही अगर छांव  मिलती हो तो भगवान मुझे हर युग हर काल में सिर्फ धुप ही धुप दें !"


एक शेर याद आता है -----

" हम लोग हैं जो वक़्त के सांचे में ढल गए ,


   वो लोग थे जो वक़्त के सांचे बदल गए !!"



निवेदन है सबसे कि हिस्सा बने इस बहस का ......अपने विचार मुझे मेल करें --- saharkavi111@gmail.com पर ....आपका विचार मै प्रकाशित करूंगा अपने ब्लॉग " कितने अच्छे थे वो बुरे दिन " पर .......प्रणाम

आपका


शिवानन्द द्विवेदी "सहर"

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